Bollywood journey: ब्लैक एंड व्हाइट सिनेमा हुई शुरूआत,आज 400 करोड़ के बजट वाली फिल्मों तक कैसे पहुंची

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Bollywood journey: बॉलीवुड, भारतीय हिंदी सिनेमा का पर्याय बन चुका है। यह दुनिया के सबसे बड़े फिल्म उद्योगों में से एक है, जो गीतों, नाटकों, रोमांस और ड्रामा से भरपूर मनोरंजन का तड़का लगाता है। आइए नजर डालते है Bollywood के इतिहास पर जो मूक फिल्मों के दौर से शुरू होकर आज के मल्टीमीडिया सिनेमा तक पहुंच चुका है।

Silent Era Magic – 1913-1930

भारतीय सिनेमा की शुरुआत 1913 में दादा साहेब फाल्के द्वारा बनाई गई पहली फीचर फिल्म “राजा हरिश्चंद्र” के साथ हुई। यह एक मूक फिल्म थी जिसमें अभिनेता भावों को हाव-भाव और चेहरे के जरिए व्यक्त करते थे। इसके बाद मराठी थिएटर से जुड़े कई कलाकार फिल्मों में आए और मूक फिल्मों का दौर फला-फूला। इस दौर की कुछ मशहूर फिल्में “कीचड़ कानून” (1917), “कर्म की गति” (1927) और “शिरिन फरहद” (1928) रहीं।

Talkies Takeover – 1930s-1950

1931 में “आलम आरा” के आने के साथ भारतीय सिनेमा में एक नया युग शुरू हुआ। यह भारत की पहली सफल बोलती फिल्म थी। जिसने दर्शकों का गानों और डॉयलॉग से दिल जीत लिया। इसके बाद हिंदी फिल्मों में गानों का महत्व बढ़ता गया और संगीत फिल्मों का दौर शुरू हुआ। इस दौर में के. एल. सहगल, अशोक कुमार, देविका रानी, ​​वीना और सुरैया जैसे दिग्गज कलाकारों ने अपने अभिनय से धूम मचाई। सामाजिक मुद्दों और ऐतिहासिक कहानियों पर आधारित फिल्में भी बनने लगीं। “मदर इंडिया” (1957) जैसी फिल्मों ने इंटरनेशनल लेवल पर भी भारत का नाम रोशन किया।

Golden Age – 1950-1970

1950 से 1970 का दशक हिंदी सिनेमा का सुनहरा युग माना जाता है। इस दौर में दिलीप कुमार, राज कपूर, देव आनंद, नरगिस, मधुबाला, वैजयंतीमाला और मुमताज जैसे दिग्गज कलाकारों ने दर्शकों के दिलों मे सिनेमा की पकड़ बना दी। लोगों की भीड़ सिनेमाघरों में टूट पड़ी। हर गली-मोहल्लों और सड़को पर फिल्मी गाने बजने लगे। पारिवारिक कहानियों, प्रेम त्रिकोणों और सामाजिक गंभीर मुद्दो पर आधारित फिल्में लोगों की पहली पसंद बन गई। तब की युवा पीढ़ी हीरो-हीरोइन जैसे कपड़े सिलवाने लगें। फैशन का नया दौर शुरु हो गया। “आवारा” (1951), “शोले” (1975), “मुगल-ए-आज़म” (1960) और “महबूबा” (1954) जैसी फिल्मों ने रिकॉर्ड तोड़ कमाई कर इतिहास रच डाला। इस दौर में ही “मसाला फिल्मों” की शुरुआत भी हुई, जिसमें रोमांस, कॉमेडी, एक्शन और ड्रामा का मेल-जोल होता था। ये फिल्में भी दर्शको को खूब पसंद आई।

The New Chapter of Bollywood: A Journey Since 1970

1970 का दशक वह दौर था जिसमें Bollywood ने एक नई शुरुआत की । मसाला फिल्मों का चलन इस समय भी जारी रहा, लेकिन समानांतर सिनेमा के दौर और नायकों की बदलती छवि ने दर्शकों को अलग सिनेमा का अनुभव दिया। आइए अब जानते है कि 1970 से अब तक के बॉलीवुड सिनेमा का दौर कितना बदला –

Rise of the Angry Young Man and Realism

1970 के दशक में दर्शक सामाजिक बदलाव और भ्रष्टाचार से खफा थे। इसी माहौल में “एंग्री यंग मैन” की छवि सामने आई। अमिताभ बच्चन की फिल्म “ज़ंजीर” (1973) के साथ इस हीरो की भूमिका बदलने की शुरुआती कड़ी मानी जाती है। वन मैन ऑर्मी, गुस्से से भरे, भ्रष्ट शासन को चुनौती देने वाले ऐसे हीरो को दर्शकों ने खूब सारा प्यार दिया। “दीवार” (1975), “मुकद्दर का सिकंदर” (1978) जैसी बॉलीवुड फिल्मों ने इसी थीम को आगे बढ़ाया। साथ ही, इस दौर में Realism सिनेमा का भी चेहरा सामने आया। “आनंद” (1971), “भूमिगत” (1976), “अंकुर” (1974) जैसी फिल्मों ने गरीबी, बेरोज़गारी और जमीनी सच्चाईयों को पर्दे पर दिखाया गया। इन फिल्मों में मुख्य सिनेमा के बड़े सितारों की जगह नये कलाकारों ने अभिनय की शुरुआत की।

Romance Era and Double Roles

Realism के साथ-साथ रोमांस का तड़का भी बॉलीवुड से कभी गायब नहीं हुआ। ऋषि कपूर, जया बच्चन, रवीना टंडन और माधुरी दीक्षित जैसे अभिनय के धनी लोगों ने रोमांटिक फिल्मों से ही अपनी पहचान बनाई। “कब हां कभी न” (1971), “लैला मजनू” (1976), “दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे” (1995) जैसी फिल्मों ने दर्शकों को प्यार की कहानियों में खो दिया। कहा जा सकता है कि इसी दौर के सिनेमा ने लोगों को प्यार और प्यार में बगावत करना सिखाया। इन सपनों की दुनिया जैसी प्यार की कहानियों पर हर युवा अपने आप को देखने लगा। युवा खुद को लीड हीरो समझकर प्यार मे डूब गया। आज भी कहा जाता है कि वो 90 वाला प्यार कहां ही मिलेगा। लोगों को प्रेम पत्र का दौर भी इसी सिनेमा ने दिया। कुल मिलाकर इसी 90 के सिनेमा ने युवाओं को बिगाड़ने का पूरा प्रयत्न किया। इस दौर में डबल रोल वाली फिल्में भी खूब बनीं। धर्मेंद्र, हेमा मालिनी और जितेंद्र जैसे सितारों ने एक से अधिक किरदार निभाकर दर्शकों का एंटरटेन किया। “सीता और गीता” (1972), “राम बलराम” (1980), ” जुड़वा” (1997) जैसी फिल्में इसी दौर की मिसाल हैं।

Exotic Locations and Special Effects

1990 के बाद में बॉलीवुड फिल्मों में विदेशी लोकेशन की शूटिंग का चलन तेजी से फैला। स्विट्जरलैंड, न्यूजीलैंड और यूरोप के खूबसूरत जगहें फिल्मों में दिखाई देने लगे। “दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे” (1995), “करण अर्जुन” (1995), “कुछ कुछ होता है” (1998) जैसी फिल्मों ने इस प्यार और बगावत के ट्रेंड को आगे बढ़ाया। साथ ही, इस दौर में विशेष प्रभावों (Special Effects) का भी इस्तेमाल बढ़ने लगा। “करण अर्जुन” (1995), “कोई… मिल गया” (2003) जैसी फिल्मों में स्पेशल इफेक्ट्स का इस्तेमाल किया गया। जिसने दर्शकों को एक अलग ही ग्राफिक्स का अनुभव दिया। आज हर मूवी में ग्राफिक्स का यूज होना आम बात है। इस दौर से आगे बढ़कर सिनेमा एक ही ट्रेंड मे सेट हो गया। अब फिल्में बस एक लीड को हीरो की तरह दिखाने के लिए बनती है। बदलते दौर का सिनेमा किस मोड़ पर जाएगा यह आने वाला वक्त ही बताएगा।

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